बुधवार, 10 जून 2009

स्वास्थय सेवाओं का बिगड़ता ढांचा

स्वास्थय सेवाओं का बिगड़ता ढांचा
हमारे देश में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं का एक बहुत बड़ा त्रिस्तरीये ढांचा विद्यमान है फिर भी हमारे यहाँ समुदाय को आवश्यकता पड़ने पर उचित मूल्य पर तकनीकी रूप से सही एवं सुरक्षित स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध नहीं हो पाती हैं। यही कारण है की ऐसे में कोई समस्या आने पर तुरंत उसका समाधान न मिल पाने के कारण माताएं एवम शिशु भी आकस्मिक मृत्यु के शिकार हो जाते हैं। इस स्थिती में लोग स्थानियी स्वास्थ्य कर्मी से सहयोग की आशा करते हैं किंतु उचित प्रशिक्षण तथा जानकारी न मिलने के कारण वे इस कठिन परिस्थितियों में चाहते हुए भी उचित सहयोग नहीं कर पाते।

देश में सरकार ने समुदाय के स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए, उपकेन्द्र, प्राथमिक स्वस्थ्य केन्द्र और सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र का ग्रामीण इलाकों में एक जाल सा बिछा दिया है। इसके बावजूद भी उत्तरी भारत के राज्यों में अधिकतर ग्रामीण छेत्र का समुदाय जरूरत और संकट के समय इन सुविधाओं से वंचित रह जाता है। जिसके पीछे कई कारण जिम्मेदार हैं। जैसे; समुदाय के लोगों की इन प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र और सामुदायिक केन्द्र अस्पतालों तक दूरी के कारण पहुँच नहीं है। अस्पतालों का ख़राब रख-रखाव, महत्त्वपूर्ण तकनीकी पदों पर कुशल लोगों की कमी, जरूरी दवाओं के लिए धन की कमी, सेवाएं मात्र उपचार के लिए न की आवश्यक परामर्श के लिए इत्यादी ।

इन सब कारणों की वजह से गैर सरकारी स्वास्थ्य सेवा प्रदानकर्ता एक महत्वपूर्ण भूमिका में परिलक्षित हुए हैं। इन स्थितियों में इनकी भूमिका ओर महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि स्वास्थ्य सेवा प्रदानकर्ता समुदाय के बीच से ही आए हुए व्यक्ती होते हैं। इसलिए समुदाय पर इनकी समझ और पकड़ काफ़ी मजबूत होती है। समुदाय अपने संकट के काल में इन्ही स्वास्थ्य सेवा प्रदानकर्ता के सामने अपनी समस्याओं के साथ आते हैं।

परन्तु तकनीकि ज्ञान की कमी और स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर चाहते हुए भी उचित ज्ञान न मिल पाना एक विडम्बना है। मानव जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि उसका जन्म है परन्तु हमारे देश में यह एक जटिल समस्या है। इसका एक उदाहरण उत्तर प्रदेश में देखने को मिलता है जहाँ शिशु मृत्युदर ७७ प्रति १००० जीवित जन्म है, जिसका मुख्य कारण है स्वास्थ्य सेवाओ की इन विषम परिस्थितियों में समुदाय तक पंहुच और स्वास्थ्य सेवा प्रदानकर्ता का तकनीकी ज्ञान।

परम्परा अनुसार ग्रामीण छेत्रों में प्रसव अधिकतर दाईयों द्वारा ही कराय जाते हैं जिन्हें स्वास्थ्य सम्बन्धी तकनीकी ज्ञान न के बराबर होता है और इनका यह कार्य पीढियों से चला आ रहा है जो की इनके जीवन यापन का एक मात्र साधन है। अब ऐसे में अगर इन सेवा प्रदानकर्ता को तकनीकी ज्ञान और उनकी सीमाओं से अवगत कराने का प्रयास किया जाए तो प्रसव सम्बन्धी विषम परिस्थितियाँ होने पर व्यर्थ समय बेकार किए बगैर सम्बंधित डाक्टर के पास भेज सकते हैं जिससे माँ और शिशु मृत्यु दर दोनों में ही कमी लाने का प्रयास किया जा सकता है।

हमारे देश में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओ का एक बहुत बड़ा त्रिस्तरिये ढांचा विद्यमान है फिर भी हमारे यहाँ समुदाय को आवश्यकता पड़ने पर उचित मूल्य पर तकनीकी रूप से सही एवं सुरक्षित सेवाएं उपलब्ध नहीं हो पाती हैं। यही कारण है की ऐसे में कोई समस्या आने पर तुंरत उसका समाधान न मिल पाने के कारण माताएं एवं शिशु भी आकस्मिक मृत्यु का शिकार हो जाते हैं।

अतः यह अत्यन्त आवश्यक है की हम अपने देश में बुनियादी स्वास्थ्य व्यवस्था को और भी मजबूत बनायें।

अमित द्विवेदी
लेखक सिटिज़न न्यूज़ सर्विस से जुड़े हैं।

सोमवार, 8 जून 2009

भारत की तरह उत्तर प्रदेश मूलतः कृषि आधारित प्रदेश है और आंकडों के लिहाज से प्रदेश के कुल कर्मकारों का ६६ और ग्रामीण कर्मकारों के लगभग ७८ प्रतिशत लोग कृषि आधारित हैं। लेकिन कृषि आधारित कामगारों से आशय केवल किसान और खेतिहर मजदूर तक सीमित नहीं है वरन पशुपालक, आदिवासी, खनन मजदूर, कृषि कार्य में सहायता करने वाले कृषि उपकरणों की मरम्मत करने वाले, मोटे आनाज और सब्जी-फल बेंचने वाले कृषि उत्पादों को तोलने और धोने वाले आदि सभी कृषि पर आधारित कर्मकार हैं। उत्तर प्रदेश की १३.५० करोड़ से ज्यादा आबादी कृषि पर निर्भर है। वास्तविक संख्या इससे कहीं ज्यादा भी हो सकती है क्योंकि खेती न तो केवल एकल उपक्रम है और न ही वर्ष के खास समय पर होने वाला काम है।


उत्पादन परक नीतियों और कार्यक्रमों के कारण रासायनिक खेती ka विस्तार पुरे प्रदेश में हुआ है और खेती का तरक्की आधार केवल कृषि उपजों का मिलियन टन में उत्पादन ही रहा इस। सम्बन्ध में रोजगार में खाद, बीज, कीटनाशक, सिंचाई आदि में काफी वृद्धि हुई है . इस सम्बन्ध में आर्थिक न्याय अभियान के समन्यवयक श्री के०के० सिंह का कहना है की 'उत्तर प्रदेश की आज की परिस्थितियां हम सभी से छिपी नहीं हैं। बात किसानो के सन्दर्भ में कही जाए तो आज एक तो किसान के पास खेती करने को जमीन नहीं है, दूसरी तरफ़ बढ़ता भूमि अनुत्पादन उन्हें प्राकृतिक रूप से भुमीहीन बना रहा है। सच कहा जाए तो किसान ही वह श्रेणी है जिस पर सब तरफ़ से मार पड़ रही है चाहे वह प्रकृति की हो, सरकारी नीति की हो अथवा बाज़ार की और किसान सब कुछ चुप-चाप सहने को विवश है। एक ओर तो प्राक्रतिक आपदा एवम ग़लत नीतियाँ किसानो को तबाह कर रहीं हैं, तो दूसरी तरफ़ बाजारीकरण तथा कृषि में कारपोरेट सेक्टर का बढ़ता जाल भी उसे परेशान कर रहा है। एन सभी विषम परिस्थितियों के होते हुए भी आज की महती आवश्यकता हम सभी को एक साथ मिल कर कार्य करने की है। सभी को एक जूट होकर प्रयास करना होगा ओर इसके लिए हमे ऊपरी स्तर पर ही नहीं, बल्कि जमीनी स्तर पर भी कार्य करने की जरूरत है।

असंगठित छेत्र के उपक्रमों हेतु गठित राष्ट्रिये आगोय द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में जिक्र है की भारत में ७७ प्रतिशत आबादी २० रूपये प्रतिदिन से कम पर गुजरा करती है। जिसमे से ४१ प्रतिशत लोगों की आमदनी १५ रूपये रोजाना से भी कम है। इस रिपोर्ट के अनुसार अनुसूचित जातियों और जनजातियों की आबादी का ८८ प्रतिशत अन्य पिछड़ी जातियों का ८० प्रतिशत और मुसलमानों के ८५ प्रतिशत लोग २० रूपये प्रतिदिन रोजाना से भी कम पर गुजारा कर रहे हैं। हम जानते हैं की आज-कल औद्योगिक जगत कृषि पर निगाह गड़ाए हुए है। किंतु कुछ कृषि विश्लेषकों का कहना है की औद्योगिक जगत के कृषि छेत्र में आने से किसानों की आमदनी बढ़ेगी क्योंकि बिचौलिए कम हो जायेंगे और लोगों के लिए रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे।

किंतु उद्योग जगत के आने से मध्य वर्ग घटता नहीं बल्कि बढ़ जाता है। जहाँ तक रोजगार का सवाल है तो कुछ लोगों को रोजगार तो मिलता है किंतु उसके साथ ही बेरोजगारों की संख्या में भी वृद्धि हो जाती है। उद्योग जगत लगातार कृषि के लिए जोर आजमा रहा है किंतु सत्य तो यह है की खेती और कम्पनी एक साथ नहीं चल सकती। अमेरिका में एक सर्वेक्षण के मुताबिक वर्ष २००२ में ९ लाख किसान खेती करते थे किंतु २००४ में इनकी संख्या घटकर ७ लाख पहुँच गयी। एक अन्य सर्वेक्षण के अनुसार १९९५ में एक किसान को ७० प्रतिशत तक खेती में फायदा होता था, जो की २००७ में घटकर सिर्फ़ ४४७ प्रतिशत रह गया। यह सब विदेशी औद्योगिक कंपनियों के आने से हुआ है। यूरोप में हर एक मिनट में एक किसान खेती छोड़ रहा है। अगर यही सब चलता रहा तो अपने प्रदेश के १२ करोड़ लोग कहाँ जायेंगे परिणाम साफ़ है शहरों की तरफ़ जाकर मजदूरी करेंगे और झुग्गी-झोपड़ियों में रहेंगे। किंतु यहाँ से भी उनको खदेड़ने की तैयारी चल रही है क्योंकि मुंबई को न्यूयार्क तथा दिल्ली को संघाई बनाने की बात जो चल रही है। ऐसे में यह साफ़ दीखता है की आज के भौतिकवादी समय में जहाँ उपभोगतावाद तथा उद्योग जगत को बढ़ावा दिया जा रहा है, वहां पर किसान और किसान से खेतिहर मजदूर बने लोगों के लिए कोई जगह नही है।

अमित द्विवेदी
लेखक सिटिज़न न्यूज़ सर्विस से जुड़े हैं।



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