बुधवार, 10 जून 2009

स्वास्थय सेवाओं का बिगड़ता ढांचा

स्वास्थय सेवाओं का बिगड़ता ढांचा
हमारे देश में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं का एक बहुत बड़ा त्रिस्तरीये ढांचा विद्यमान है फिर भी हमारे यहाँ समुदाय को आवश्यकता पड़ने पर उचित मूल्य पर तकनीकी रूप से सही एवं सुरक्षित स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध नहीं हो पाती हैं। यही कारण है की ऐसे में कोई समस्या आने पर तुरंत उसका समाधान न मिल पाने के कारण माताएं एवम शिशु भी आकस्मिक मृत्यु के शिकार हो जाते हैं। इस स्थिती में लोग स्थानियी स्वास्थ्य कर्मी से सहयोग की आशा करते हैं किंतु उचित प्रशिक्षण तथा जानकारी न मिलने के कारण वे इस कठिन परिस्थितियों में चाहते हुए भी उचित सहयोग नहीं कर पाते।

देश में सरकार ने समुदाय के स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए, उपकेन्द्र, प्राथमिक स्वस्थ्य केन्द्र और सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र का ग्रामीण इलाकों में एक जाल सा बिछा दिया है। इसके बावजूद भी उत्तरी भारत के राज्यों में अधिकतर ग्रामीण छेत्र का समुदाय जरूरत और संकट के समय इन सुविधाओं से वंचित रह जाता है। जिसके पीछे कई कारण जिम्मेदार हैं। जैसे; समुदाय के लोगों की इन प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र और सामुदायिक केन्द्र अस्पतालों तक दूरी के कारण पहुँच नहीं है। अस्पतालों का ख़राब रख-रखाव, महत्त्वपूर्ण तकनीकी पदों पर कुशल लोगों की कमी, जरूरी दवाओं के लिए धन की कमी, सेवाएं मात्र उपचार के लिए न की आवश्यक परामर्श के लिए इत्यादी ।

इन सब कारणों की वजह से गैर सरकारी स्वास्थ्य सेवा प्रदानकर्ता एक महत्वपूर्ण भूमिका में परिलक्षित हुए हैं। इन स्थितियों में इनकी भूमिका ओर महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि स्वास्थ्य सेवा प्रदानकर्ता समुदाय के बीच से ही आए हुए व्यक्ती होते हैं। इसलिए समुदाय पर इनकी समझ और पकड़ काफ़ी मजबूत होती है। समुदाय अपने संकट के काल में इन्ही स्वास्थ्य सेवा प्रदानकर्ता के सामने अपनी समस्याओं के साथ आते हैं।

परन्तु तकनीकि ज्ञान की कमी और स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर चाहते हुए भी उचित ज्ञान न मिल पाना एक विडम्बना है। मानव जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि उसका जन्म है परन्तु हमारे देश में यह एक जटिल समस्या है। इसका एक उदाहरण उत्तर प्रदेश में देखने को मिलता है जहाँ शिशु मृत्युदर ७७ प्रति १००० जीवित जन्म है, जिसका मुख्य कारण है स्वास्थ्य सेवाओ की इन विषम परिस्थितियों में समुदाय तक पंहुच और स्वास्थ्य सेवा प्रदानकर्ता का तकनीकी ज्ञान।

परम्परा अनुसार ग्रामीण छेत्रों में प्रसव अधिकतर दाईयों द्वारा ही कराय जाते हैं जिन्हें स्वास्थ्य सम्बन्धी तकनीकी ज्ञान न के बराबर होता है और इनका यह कार्य पीढियों से चला आ रहा है जो की इनके जीवन यापन का एक मात्र साधन है। अब ऐसे में अगर इन सेवा प्रदानकर्ता को तकनीकी ज्ञान और उनकी सीमाओं से अवगत कराने का प्रयास किया जाए तो प्रसव सम्बन्धी विषम परिस्थितियाँ होने पर व्यर्थ समय बेकार किए बगैर सम्बंधित डाक्टर के पास भेज सकते हैं जिससे माँ और शिशु मृत्यु दर दोनों में ही कमी लाने का प्रयास किया जा सकता है।

हमारे देश में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओ का एक बहुत बड़ा त्रिस्तरिये ढांचा विद्यमान है फिर भी हमारे यहाँ समुदाय को आवश्यकता पड़ने पर उचित मूल्य पर तकनीकी रूप से सही एवं सुरक्षित सेवाएं उपलब्ध नहीं हो पाती हैं। यही कारण है की ऐसे में कोई समस्या आने पर तुंरत उसका समाधान न मिल पाने के कारण माताएं एवं शिशु भी आकस्मिक मृत्यु का शिकार हो जाते हैं।

अतः यह अत्यन्त आवश्यक है की हम अपने देश में बुनियादी स्वास्थ्य व्यवस्था को और भी मजबूत बनायें।

अमित द्विवेदी
लेखक सिटिज़न न्यूज़ सर्विस से जुड़े हैं।

सोमवार, 8 जून 2009

भारत की तरह उत्तर प्रदेश मूलतः कृषि आधारित प्रदेश है और आंकडों के लिहाज से प्रदेश के कुल कर्मकारों का ६६ और ग्रामीण कर्मकारों के लगभग ७८ प्रतिशत लोग कृषि आधारित हैं। लेकिन कृषि आधारित कामगारों से आशय केवल किसान और खेतिहर मजदूर तक सीमित नहीं है वरन पशुपालक, आदिवासी, खनन मजदूर, कृषि कार्य में सहायता करने वाले कृषि उपकरणों की मरम्मत करने वाले, मोटे आनाज और सब्जी-फल बेंचने वाले कृषि उत्पादों को तोलने और धोने वाले आदि सभी कृषि पर आधारित कर्मकार हैं। उत्तर प्रदेश की १३.५० करोड़ से ज्यादा आबादी कृषि पर निर्भर है। वास्तविक संख्या इससे कहीं ज्यादा भी हो सकती है क्योंकि खेती न तो केवल एकल उपक्रम है और न ही वर्ष के खास समय पर होने वाला काम है।


उत्पादन परक नीतियों और कार्यक्रमों के कारण रासायनिक खेती ka विस्तार पुरे प्रदेश में हुआ है और खेती का तरक्की आधार केवल कृषि उपजों का मिलियन टन में उत्पादन ही रहा इस। सम्बन्ध में रोजगार में खाद, बीज, कीटनाशक, सिंचाई आदि में काफी वृद्धि हुई है . इस सम्बन्ध में आर्थिक न्याय अभियान के समन्यवयक श्री के०के० सिंह का कहना है की 'उत्तर प्रदेश की आज की परिस्थितियां हम सभी से छिपी नहीं हैं। बात किसानो के सन्दर्भ में कही जाए तो आज एक तो किसान के पास खेती करने को जमीन नहीं है, दूसरी तरफ़ बढ़ता भूमि अनुत्पादन उन्हें प्राकृतिक रूप से भुमीहीन बना रहा है। सच कहा जाए तो किसान ही वह श्रेणी है जिस पर सब तरफ़ से मार पड़ रही है चाहे वह प्रकृति की हो, सरकारी नीति की हो अथवा बाज़ार की और किसान सब कुछ चुप-चाप सहने को विवश है। एक ओर तो प्राक्रतिक आपदा एवम ग़लत नीतियाँ किसानो को तबाह कर रहीं हैं, तो दूसरी तरफ़ बाजारीकरण तथा कृषि में कारपोरेट सेक्टर का बढ़ता जाल भी उसे परेशान कर रहा है। एन सभी विषम परिस्थितियों के होते हुए भी आज की महती आवश्यकता हम सभी को एक साथ मिल कर कार्य करने की है। सभी को एक जूट होकर प्रयास करना होगा ओर इसके लिए हमे ऊपरी स्तर पर ही नहीं, बल्कि जमीनी स्तर पर भी कार्य करने की जरूरत है।

असंगठित छेत्र के उपक्रमों हेतु गठित राष्ट्रिये आगोय द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में जिक्र है की भारत में ७७ प्रतिशत आबादी २० रूपये प्रतिदिन से कम पर गुजरा करती है। जिसमे से ४१ प्रतिशत लोगों की आमदनी १५ रूपये रोजाना से भी कम है। इस रिपोर्ट के अनुसार अनुसूचित जातियों और जनजातियों की आबादी का ८८ प्रतिशत अन्य पिछड़ी जातियों का ८० प्रतिशत और मुसलमानों के ८५ प्रतिशत लोग २० रूपये प्रतिदिन रोजाना से भी कम पर गुजारा कर रहे हैं। हम जानते हैं की आज-कल औद्योगिक जगत कृषि पर निगाह गड़ाए हुए है। किंतु कुछ कृषि विश्लेषकों का कहना है की औद्योगिक जगत के कृषि छेत्र में आने से किसानों की आमदनी बढ़ेगी क्योंकि बिचौलिए कम हो जायेंगे और लोगों के लिए रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे।

किंतु उद्योग जगत के आने से मध्य वर्ग घटता नहीं बल्कि बढ़ जाता है। जहाँ तक रोजगार का सवाल है तो कुछ लोगों को रोजगार तो मिलता है किंतु उसके साथ ही बेरोजगारों की संख्या में भी वृद्धि हो जाती है। उद्योग जगत लगातार कृषि के लिए जोर आजमा रहा है किंतु सत्य तो यह है की खेती और कम्पनी एक साथ नहीं चल सकती। अमेरिका में एक सर्वेक्षण के मुताबिक वर्ष २००२ में ९ लाख किसान खेती करते थे किंतु २००४ में इनकी संख्या घटकर ७ लाख पहुँच गयी। एक अन्य सर्वेक्षण के अनुसार १९९५ में एक किसान को ७० प्रतिशत तक खेती में फायदा होता था, जो की २००७ में घटकर सिर्फ़ ४४७ प्रतिशत रह गया। यह सब विदेशी औद्योगिक कंपनियों के आने से हुआ है। यूरोप में हर एक मिनट में एक किसान खेती छोड़ रहा है। अगर यही सब चलता रहा तो अपने प्रदेश के १२ करोड़ लोग कहाँ जायेंगे परिणाम साफ़ है शहरों की तरफ़ जाकर मजदूरी करेंगे और झुग्गी-झोपड़ियों में रहेंगे। किंतु यहाँ से भी उनको खदेड़ने की तैयारी चल रही है क्योंकि मुंबई को न्यूयार्क तथा दिल्ली को संघाई बनाने की बात जो चल रही है। ऐसे में यह साफ़ दीखता है की आज के भौतिकवादी समय में जहाँ उपभोगतावाद तथा उद्योग जगत को बढ़ावा दिया जा रहा है, वहां पर किसान और किसान से खेतिहर मजदूर बने लोगों के लिए कोई जगह नही है।

अमित द्विवेदी
लेखक सिटिज़न न्यूज़ सर्विस से जुड़े हैं।



Is sambandh mein aarthik nyay abhiyaan ke samanyvayak shri ke0ke0 singh ka kahna hai kii


सोमवार, 26 जनवरी 2009


लोक कुमार द्विवेदी का कहना था की कल हा


यू अरे सो लोविंग and कैरिंग पल बे केयर फ़िउल



मंगलवार, 2 दिसंबर 2008

भारत का राज्यपत्र
स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय
(स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग)
शुद्धिपत्र
नई दिल्ली,२८ नवम्बर , २००८
का. आ.२८१४(अ).:- भारत सरकार , स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के दीनांक, २९ सितम्बर २००८, को अधिसूचना सं. सा.का.नि.६९३(अ) में भारत के राज्यपत्र, असाधारण के भाग -२, खंड-३, उपखंड-१ में प्रकाशित सिगरेट और अन्य तम्बाखू उत्पाद [ पैकेजिंग और लेबलिंग (संशोदन)] नियमावली २००८ .

नियम २ (ई) के स्थान पर निम्नलिखित को रखा जाएगा.
नामतः:-
“ उपनियम (च) के स्थान पर निम्नलिखित को रखा जाएगा.
नामतः:-
(च). विनिर्दिष्ट चेतावानिया डिब्बे पर लिखी भाषा / भाषाओं में दी जायेगी.:-
बशर्ते की डिब्बे पर एक से अधिक भाषा/ भाषाओँ का प्रयोग किए जाने पर विनिर्दिष्ट चेतावनी दो भाषाओं में छपेगी – एक जिसमें ब्रांड नाम छापा हो और दूसरा कोई भी अन्य भाषा होगी जिसका प्रयोग डिब्बे पर किया गया हो.”
[सं. पी.-१६०११/०७/२००५ पी. एच.]
बी. के. प्रसाद सैयुक्त सचिव
टिप्पणी:- मूल नियम सं. सा. का. नि. १८२(अ), दीनांक १५ मार्च, २००८ के तहत प्रकाशित किए गए थे।




भारत का राज्यपत्र
स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय
(स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग)
अधिसूचना
नई दिल्ली,२८ नवम्बर , २००८
का. आ.२८१५(अ).:- केन्द्र सरकार दीनांक २७ अगस्त , २००८ की अधिसूचना सं. का. आ.२१३०(अ). के अधिक्रमण में, एतद्द्वारा मई, २००९ के ३१वे दिन को (३१ तारीख को) उस तिथि के रूप में अधिसूचित कराती है जिस तिथि को दीनांक १५ मार्च,२००८ की सं. सा. का. नी. १८२(अ) के तहत अधिसूचित सिगरेट अवं अन्य तम्बाखू उत्पाद [ पैकेजिंग और लेबलिंग] नियमावली, २००८ लागू की जायेगी.

[ स. पी.-१६०११/१/२००५ पी.एच.]
बी. के. प्रसाद सैयुक्त सचिव

बुधवार, 8 अक्तूबर 2008

संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार अभी तक विश्व में bhookon की संख्या ७.५ करोड़ है और यदि अनाज के दामों की यह बढ़त जारी रही तो यह संख्या बढ़कर ९२.२५ करोड़ हो सकती है. भारत भी इसी कठिन परिस्तिथि से गुजर रहा है जहाँ गरीबों को bhuke पेट सोना पड़ता है.लेकिन इस कठिन समय में जब देश सरकार की तरफ से कुछ सख्त एवं सार्थक कदम की उम्मीद कर रहा है तब वह यह कहकर अपना बचाव कर रही है की यह एक वैश्विक समस्या है श्व के ३० से भी अधिक देशो को प्रभावित किया है,जिसमे से कई देशों ने भोजन के लिए दंगे भी देखे हैं. वे इस विपत्ति के मूल कारणों का पता लगाने तथा लोगों के सामने उनका खुलासा करने में जरा भी रूचि नही रखते. यद्यपि महंगाई निरंतर बढती जा रही है और पूरे देश में अनाज की उपलब्धता के सम्बन्ध में कई सवाल खाधे हो रहे हैं परन्तु हमारी सरकार अब भी यही मानती है की विश्व अर्थव्यवस्था में अपना स्थान कायम रखने के लिए कारपोरेट कंपनियों का निवेश और समर्थन ज़रूरी है. प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद् ने भी कारपोरेट सेक्टर का पक्ष लेते हुए यह कहा है की कृषि ग डी प में गैर अनाज उत्पादक क्रियाओं जैसे वाणिज्य फसलें, बागवानी का ज्यादा योगदान है. परिषद् ने आगे यह सलाह दी है की अनाज की खरीद और सार्वजनिक वितरण प्रणाली से सम्बंधित सभी सब्सिडी हटा दी जाए जिस से कृषि छेत्र में कारपोरेट फार्मिंग द्वारा प्राइवेट सेक्टर के लिए जगह बनाई जा सके. यह सभी सिफारिशे वर्ल्ड बैंक और उ स अ को खुश करने के लिए की गयी थी.



विभिन्न बड़ी अनाज कंपनियों के लिए भारतीय बाज़ार का रास्ता आसन बनाना के उद्देश्य से भारत सरकार ने जानबूझकर तथा एक सुनियोजित ढंग से अपनी सार्वजनिक वितरण प्रणाली को कमज़ोर किया. इसके लिए सरकार ने अनाज (मुख्या रूप से गेहूं) की खरीद कम कर दी.इस स्तिथि का फायदा उठाते हुए वर्ष २००५-०७ में कई मुलती नेशनल कंपनियों जैसे कारगिल इंडिया, थे आस्ट्रेलियन व्हेअत बोर्ड,भारतीय कंपनियाँ जैसे इ टी क और अदानी समूह जिन्होंने कुल ३० लाख तोंने गेहूं खरीदा जबकि इसकी तुलना में सरकार का आंकडा महज ९.२ मिलियन तोंने गेहूं ही रहा. इस कारणवश भारत में ऐसे कई परिवार जो गरीबी रेखा से निचे जीवन गुजर रहे हैं, उन्हें अब दो वक्त की रोटी भी नही मिलती क्यूंकि जो मूल्य कंपनियों ने निर्धारित किए थे वह उन गरीबों की पहुच से बहार थे. इससे मांग- पूर्ति अनुपात बिगड़ गया तथा पुरे देश में खाद्य असुरक्षा की स्तिथि फ़ैल गयी.



खाद्य एवं कृषि संगठन के सहायक महानिदेशक हफेज़ घानेम ने दो मुख्या बैटन पर ज़ोर दिया है.पहला, विश्व के गरीब देशों को अनाज उपलब्ध करना.दूसरा, छोटे किसानों को अनाज उत्पादकता बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करना. अब वक्त आ गया है जब भारतीय सरकार को यह समझना चाहिए की छोटे एवं सीमान्त किसान जो इन उदार नीतियों से बुरी तरह प्रभावित हुए है, दरअसल उन्ही के हाथों में इस मुश्किल की चाभी है. भारत में कृषि का ज्यादातर हिस्सा इन छोटे और सीमान्त किसानो का है, इसलिए हमारी सरकार को इन्हे बढावा देना चाहिए.इसके साथ ही साथ कृषि छेत्र पूरी तरह से सरकार द्वारा चलाया जन चाहिए,निवेश से लेकर मार्केटिंग और वितरण तक.यहाँ तक की यदि किसी भी तरह का कारपोरेट निवेश हो तो उसका भी नियमन सरकारी अधिकारीयों द्वारा किया jaana हिए.

सोमवार, 5 मई 2008

मशीनीकरण की तरफ़ बढ़ता फसल कटाई का काम

कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है और भारतीय अर्थव्यवस्था में, विशेषकर गंगा यमुना के मैदानी कृषि व्यवस्था में गेहूं और चावल की फसलें और उनका उत्पादन प्रमुख है। धान और गेंहूँ के उत्पादन की प्रक्रिया पूर्वी उत्तर प्रदेश के फसल चक्र की प्रमुख विशेषता है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में फसलों का यह चक्र हजारों परिवारों को न केवल आजीविका का साधन उपलब्ध करवाता है बल्कि साथ ही इस छेत्र की खाद्य सुरक्षा का भी प्रमुख श्रोत है।

पिछले कुछ वर्षों से इस फसल चक्र की सम्पूर्ण प्रक्रिया में एक तरह की स्थिरता आई है जो धानऔर गेहूं के उत्पादन में गिरावट का गंभीर संकेत देती है। इस गिरावट के कई कारन हैं जिसमे जल संसाधन में गिरावट, पोषक तत्वों की कमी अत्यधिक उर्जा की खपत, मिटटी के स्वास्थ्य में गिरावट तथा अन्यं पर्यवार्नियें समस्याएँ रही हैं। अभी हाल ही में इस सम्बन्ध में फसल अवशेषों का खेत के भीतर जलाया जन तथा कटाई की मशीनीकरण की पधती मूल रूप से चर्चा में रही हैं। क्योंकि खेती में बढ़ता मशीनीकरण तथा उससे जुड़ी प्रक्रियाएं परोक्ष तथा अपरोक्ष रूप से जहाँ जलवायु परिवर्तन के कारकों को मदद दे रही है। वहीं वह आर्थिक रूप से किसानों के लिए भी लाभप्रद साबित नही हो रही है। किसान रासायनिक खेती तथा जलवायु परिवर्तन के कारणों से त्रस्त हैं । इस सम्बन्ध में हाल ही में गोरखपुर एन्विओरेन्मेन्तल् एक्शन ग्रुप द्वारा किसानों के बीच कराये गए एक सर्वेक्षण की खेती में फसलों की कटाई से संबंधित मशीनीकरण से कितना लाभ और हानि है। क्या फसलों की कटाई मैं मशीनों का अपनायाजना लाभप्रद है।

इस सर्वेक्षण से पता चलता है की मशीन द्वारा धन की कटाई मानव द्वारा की जाने वाली कटाई से ४७५ रूपये प्रति एकड़ महंगी है। मशीन द्वारा धन की कटाई का एक नकारात्मक पक्ष यह भी है की इसमें प्रति हेक्टेयर लगभग ९ कुंतल चारे का नुकसान होता है। मशीन द्वारा कटाई से विशिस्थ रूप से कार्बन, नत्रजन, फास्फोरस, पोटाश, सल्फर तथा मिटटी के अन्दर बक्तेरिया की मात्र घटती है तथा मिटटी के स्वास्थ्य में गिरावट आती है।

इस अध्ययन के दौरान यह देखा गया की गेहूं और धान की बुवाई का कुल परीछेत्र जो क्रमश: १८०७४२ तथा १३९२६० हेक्टेयर था में कम्बाइन मशीन के द्वारे गेहूं और धान की कटाई का कुल छेत्र क्रमश:३१ तथा ३७ प्रतिशत का रहा। फसलों के अवशेस जलने से गेहूं तथा धान के खेतों की नमी में ५० प्रतिशत की गिरावट आई है। धान की मशीन द्वारा की जाने वाली कटाई मानव द्वारा की जाने वाली कटाई से काफी महंगा है। सर्वेक्षण बताता है की प्रति एकड़ में मशीन द्वारा की जाने वाली कटाई से १७२५ रूपये की लगत आती है वही मानव द्वारा की जाने वाली कटाई से मात्र १२५० रूपये लगत आती है। अर्थात मशीन द्वारा की जाने वाली कटाई से ४७५ रूपये महंगी है। मशीन द्वारा धान की कटाई का एक नकारात्मक पक्ष यह भी है की इसमें प्रति हेक्टेयर लगभग ९ कुंतल चारे का नुकसान होता है। लेकिन सवाल यह है की आख़िर यह जानते हुए की मशीन द्वारा कटाई मानव द्वारा की जाने वाली कटाई से महंगी होते हुए भी किसान मशीनीकरणकी तरफ़ कयूं बढ़ रहें हैं। इस सम्बन्ध में पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक बड़े किसान का कहना है की " मशीनों द्वारा की वाली जाने वाली कटाई अधिक सुविधा जनक तथा सरल है। इसमे समय भी कम लगता है, अक्सर मजदूर कटाई के वक्त मिलते नही और ज्यादा देर करने पर फसलों के बारिश या फिर पत्थर गिरने पर पुरी तरह से नष्ट होने की सम्भावना बनी रहती है। इन
सभी समस्यों का चलते किसान यहाँ तक की छोटे किसान मशीनी कटाई की तरफ़ बढ़ रहे हैं। ऐसा भी नही है की किसान अपनी साडी फसल मशीन द्वारा जी कटवाता है। वह कुछ फसलों को भूसे इत्यादी के रूप में बचा कर रखता है। अंततः सरकार और किसान दोनों को मानव कटाई की तरफ ज्यादा ध्यान देने की जरुरत है।








रविवार, 4 मई 2008

अस्थमा नियंत्रण ज्यादातर देशों में अशफल

विश्व अस्थमा दिवस (६ मई, २००८):
अस्थमा नियंत्रण ज्यादातर देशों में अशफल है
विश्व के लगभग ३० करोर लोग अस्थमा की समस्या से ग्रसित हैं! अस्थमा की बीमारी व्यक्तिगत, पारिवारिक, तथा सामुदायिक तीनो स्तरों पर लोगों को प्रभावित करता है।
वश्विक स्तर पर अस्थमा की समस्या पर प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक वश्विक स्तर पर अस्थमा नियंत्रण कार्यक्रम विभिन्न बाधाओं के चलते फ़ैल रहें हैं। किंतु यदि हम अस्थमा नियंत्रण और इसके प्रवंधन पर ध्यान दे तो इस रोग पर नियंत्रण पाया जा सकता है। अपर्याप्त अस्थमा नियंत्रण कार्यक्रम की वजह से लोगों की जीवन शैली में परिवर्तन देखें जा सकते हैं। उदाहरण के लिए विश्व के काये सारे चेत्रों में प्रत्येक चार में से एक अस्थमा ग्रसित बच्चा स्कूल नही जा सकता है।
इस बार के विश्व अस्थमा दिवस का विषय है " आप अस्थमा पर नियंत्रण पा सकतें हैं"। इस थीम द्वारा यह बात साफ तौर पर जाहिर होती है की अस्थमा के रोकथाम का असरकारी उपचार की विधियाँ मौजूद हैं जरुरत है इसके सहीजांच जागरूकता और उपचार की।
अस्थमा नियंत्रण और प्रबंधन की वैशिक निति २००७ के मुताबिक अस्थमा नियंत्रण का मतलब है की व्यक्ति जिसको की जरा सा भी अस्थमा है उसको रात को नहीं टहलना चाहिए।
- अस्थमा राहत दवा का थोड़ा सा उपयोग करना चाहिये
- यदि व्यक्ति सामान्य शारीरिक काम कर सकता है।
- कभी नहीं या कभी- कभी जिसको अस्थमा की शिकायत हो

कुछ लोग जो की अस्थमा से ग्रसित हैं उन लोगों ने कभी भी पर्याप्त अस्थमा की जांच नही करवाई है, इस वजह से उनमें अस्थमा के उपचार और उचित नियंत्रण की सम्भावना कम हो जाती है। अस्थमा के पर्याप्त और सही समय पर जांच न हो पाने की कई साडी वजहें हैं। जैसे: मरीजों में इसके बारें में पर्याप्त जानकारी न होना, स्वय्थ्य कार्यकर्ताओं द्वारा सही समय पर इसके पहचान न कर पाना और चिकित्सा व्यवस्था तक लोगों की व्यापक पहुँच न हो पाना इत्यादी
विश्व के कई सारे देशों जैसे: मध्य पूर्व, मध्य अमरीका, दक्षिण एशिया, उत्तर पश्चिम और पूर्व अफ्रीका इत्यादी देशों में दवाओं के अनुप्लाभ्दाता अस्थमा की स्तिथि को और भी गंभीर बना देतें हैं। इसकी साथ की साक्ष्य आधारित निर्देशों के अनुसार लोगों को लगातार दवायों न मिल पाना भी अस्थमा नियंत्रण को कमजोर बना देता है।
विश्व के कई देशों में ऐसे लोग जो अस्थमा से ग्रसित हैं वह वताबरण में व्याप्त प्रदुशअन जैसे सिगरेट का धुवाँ घर के अन्दर और बाहर पर्दुषित हवा आदि तथा रसायन इत्यादी से और भी बुरी स्तिथि में जा सकतें हैं।
यदि हम अस्थमा नियंत्रण को प्रभावी बनाना चाहतें हैं तो हम सभी को इसकी प्रवाभी नियंत्रण के लिए व्यापक और प्रभावकारी निति बनानी होगी।