सोमवार, 8 जून 2009

भारत की तरह उत्तर प्रदेश मूलतः कृषि आधारित प्रदेश है और आंकडों के लिहाज से प्रदेश के कुल कर्मकारों का ६६ और ग्रामीण कर्मकारों के लगभग ७८ प्रतिशत लोग कृषि आधारित हैं। लेकिन कृषि आधारित कामगारों से आशय केवल किसान और खेतिहर मजदूर तक सीमित नहीं है वरन पशुपालक, आदिवासी, खनन मजदूर, कृषि कार्य में सहायता करने वाले कृषि उपकरणों की मरम्मत करने वाले, मोटे आनाज और सब्जी-फल बेंचने वाले कृषि उत्पादों को तोलने और धोने वाले आदि सभी कृषि पर आधारित कर्मकार हैं। उत्तर प्रदेश की १३.५० करोड़ से ज्यादा आबादी कृषि पर निर्भर है। वास्तविक संख्या इससे कहीं ज्यादा भी हो सकती है क्योंकि खेती न तो केवल एकल उपक्रम है और न ही वर्ष के खास समय पर होने वाला काम है।


उत्पादन परक नीतियों और कार्यक्रमों के कारण रासायनिक खेती ka विस्तार पुरे प्रदेश में हुआ है और खेती का तरक्की आधार केवल कृषि उपजों का मिलियन टन में उत्पादन ही रहा इस। सम्बन्ध में रोजगार में खाद, बीज, कीटनाशक, सिंचाई आदि में काफी वृद्धि हुई है . इस सम्बन्ध में आर्थिक न्याय अभियान के समन्यवयक श्री के०के० सिंह का कहना है की 'उत्तर प्रदेश की आज की परिस्थितियां हम सभी से छिपी नहीं हैं। बात किसानो के सन्दर्भ में कही जाए तो आज एक तो किसान के पास खेती करने को जमीन नहीं है, दूसरी तरफ़ बढ़ता भूमि अनुत्पादन उन्हें प्राकृतिक रूप से भुमीहीन बना रहा है। सच कहा जाए तो किसान ही वह श्रेणी है जिस पर सब तरफ़ से मार पड़ रही है चाहे वह प्रकृति की हो, सरकारी नीति की हो अथवा बाज़ार की और किसान सब कुछ चुप-चाप सहने को विवश है। एक ओर तो प्राक्रतिक आपदा एवम ग़लत नीतियाँ किसानो को तबाह कर रहीं हैं, तो दूसरी तरफ़ बाजारीकरण तथा कृषि में कारपोरेट सेक्टर का बढ़ता जाल भी उसे परेशान कर रहा है। एन सभी विषम परिस्थितियों के होते हुए भी आज की महती आवश्यकता हम सभी को एक साथ मिल कर कार्य करने की है। सभी को एक जूट होकर प्रयास करना होगा ओर इसके लिए हमे ऊपरी स्तर पर ही नहीं, बल्कि जमीनी स्तर पर भी कार्य करने की जरूरत है।

असंगठित छेत्र के उपक्रमों हेतु गठित राष्ट्रिये आगोय द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में जिक्र है की भारत में ७७ प्रतिशत आबादी २० रूपये प्रतिदिन से कम पर गुजरा करती है। जिसमे से ४१ प्रतिशत लोगों की आमदनी १५ रूपये रोजाना से भी कम है। इस रिपोर्ट के अनुसार अनुसूचित जातियों और जनजातियों की आबादी का ८८ प्रतिशत अन्य पिछड़ी जातियों का ८० प्रतिशत और मुसलमानों के ८५ प्रतिशत लोग २० रूपये प्रतिदिन रोजाना से भी कम पर गुजारा कर रहे हैं। हम जानते हैं की आज-कल औद्योगिक जगत कृषि पर निगाह गड़ाए हुए है। किंतु कुछ कृषि विश्लेषकों का कहना है की औद्योगिक जगत के कृषि छेत्र में आने से किसानों की आमदनी बढ़ेगी क्योंकि बिचौलिए कम हो जायेंगे और लोगों के लिए रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे।

किंतु उद्योग जगत के आने से मध्य वर्ग घटता नहीं बल्कि बढ़ जाता है। जहाँ तक रोजगार का सवाल है तो कुछ लोगों को रोजगार तो मिलता है किंतु उसके साथ ही बेरोजगारों की संख्या में भी वृद्धि हो जाती है। उद्योग जगत लगातार कृषि के लिए जोर आजमा रहा है किंतु सत्य तो यह है की खेती और कम्पनी एक साथ नहीं चल सकती। अमेरिका में एक सर्वेक्षण के मुताबिक वर्ष २००२ में ९ लाख किसान खेती करते थे किंतु २००४ में इनकी संख्या घटकर ७ लाख पहुँच गयी। एक अन्य सर्वेक्षण के अनुसार १९९५ में एक किसान को ७० प्रतिशत तक खेती में फायदा होता था, जो की २००७ में घटकर सिर्फ़ ४४७ प्रतिशत रह गया। यह सब विदेशी औद्योगिक कंपनियों के आने से हुआ है। यूरोप में हर एक मिनट में एक किसान खेती छोड़ रहा है। अगर यही सब चलता रहा तो अपने प्रदेश के १२ करोड़ लोग कहाँ जायेंगे परिणाम साफ़ है शहरों की तरफ़ जाकर मजदूरी करेंगे और झुग्गी-झोपड़ियों में रहेंगे। किंतु यहाँ से भी उनको खदेड़ने की तैयारी चल रही है क्योंकि मुंबई को न्यूयार्क तथा दिल्ली को संघाई बनाने की बात जो चल रही है। ऐसे में यह साफ़ दीखता है की आज के भौतिकवादी समय में जहाँ उपभोगतावाद तथा उद्योग जगत को बढ़ावा दिया जा रहा है, वहां पर किसान और किसान से खेतिहर मजदूर बने लोगों के लिए कोई जगह नही है।

अमित द्विवेदी
लेखक सिटिज़न न्यूज़ सर्विस से जुड़े हैं।



Is sambandh mein aarthik nyay abhiyaan ke samanyvayak shri ke0ke0 singh ka kahna hai kii


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