बुधवार, 8 अक्तूबर 2008

संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार अभी तक विश्व में bhookon की संख्या ७.५ करोड़ है और यदि अनाज के दामों की यह बढ़त जारी रही तो यह संख्या बढ़कर ९२.२५ करोड़ हो सकती है. भारत भी इसी कठिन परिस्तिथि से गुजर रहा है जहाँ गरीबों को bhuke पेट सोना पड़ता है.लेकिन इस कठिन समय में जब देश सरकार की तरफ से कुछ सख्त एवं सार्थक कदम की उम्मीद कर रहा है तब वह यह कहकर अपना बचाव कर रही है की यह एक वैश्विक समस्या है श्व के ३० से भी अधिक देशो को प्रभावित किया है,जिसमे से कई देशों ने भोजन के लिए दंगे भी देखे हैं. वे इस विपत्ति के मूल कारणों का पता लगाने तथा लोगों के सामने उनका खुलासा करने में जरा भी रूचि नही रखते. यद्यपि महंगाई निरंतर बढती जा रही है और पूरे देश में अनाज की उपलब्धता के सम्बन्ध में कई सवाल खाधे हो रहे हैं परन्तु हमारी सरकार अब भी यही मानती है की विश्व अर्थव्यवस्था में अपना स्थान कायम रखने के लिए कारपोरेट कंपनियों का निवेश और समर्थन ज़रूरी है. प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद् ने भी कारपोरेट सेक्टर का पक्ष लेते हुए यह कहा है की कृषि ग डी प में गैर अनाज उत्पादक क्रियाओं जैसे वाणिज्य फसलें, बागवानी का ज्यादा योगदान है. परिषद् ने आगे यह सलाह दी है की अनाज की खरीद और सार्वजनिक वितरण प्रणाली से सम्बंधित सभी सब्सिडी हटा दी जाए जिस से कृषि छेत्र में कारपोरेट फार्मिंग द्वारा प्राइवेट सेक्टर के लिए जगह बनाई जा सके. यह सभी सिफारिशे वर्ल्ड बैंक और उ स अ को खुश करने के लिए की गयी थी.



विभिन्न बड़ी अनाज कंपनियों के लिए भारतीय बाज़ार का रास्ता आसन बनाना के उद्देश्य से भारत सरकार ने जानबूझकर तथा एक सुनियोजित ढंग से अपनी सार्वजनिक वितरण प्रणाली को कमज़ोर किया. इसके लिए सरकार ने अनाज (मुख्या रूप से गेहूं) की खरीद कम कर दी.इस स्तिथि का फायदा उठाते हुए वर्ष २००५-०७ में कई मुलती नेशनल कंपनियों जैसे कारगिल इंडिया, थे आस्ट्रेलियन व्हेअत बोर्ड,भारतीय कंपनियाँ जैसे इ टी क और अदानी समूह जिन्होंने कुल ३० लाख तोंने गेहूं खरीदा जबकि इसकी तुलना में सरकार का आंकडा महज ९.२ मिलियन तोंने गेहूं ही रहा. इस कारणवश भारत में ऐसे कई परिवार जो गरीबी रेखा से निचे जीवन गुजर रहे हैं, उन्हें अब दो वक्त की रोटी भी नही मिलती क्यूंकि जो मूल्य कंपनियों ने निर्धारित किए थे वह उन गरीबों की पहुच से बहार थे. इससे मांग- पूर्ति अनुपात बिगड़ गया तथा पुरे देश में खाद्य असुरक्षा की स्तिथि फ़ैल गयी.



खाद्य एवं कृषि संगठन के सहायक महानिदेशक हफेज़ घानेम ने दो मुख्या बैटन पर ज़ोर दिया है.पहला, विश्व के गरीब देशों को अनाज उपलब्ध करना.दूसरा, छोटे किसानों को अनाज उत्पादकता बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करना. अब वक्त आ गया है जब भारतीय सरकार को यह समझना चाहिए की छोटे एवं सीमान्त किसान जो इन उदार नीतियों से बुरी तरह प्रभावित हुए है, दरअसल उन्ही के हाथों में इस मुश्किल की चाभी है. भारत में कृषि का ज्यादातर हिस्सा इन छोटे और सीमान्त किसानो का है, इसलिए हमारी सरकार को इन्हे बढावा देना चाहिए.इसके साथ ही साथ कृषि छेत्र पूरी तरह से सरकार द्वारा चलाया जन चाहिए,निवेश से लेकर मार्केटिंग और वितरण तक.यहाँ तक की यदि किसी भी तरह का कारपोरेट निवेश हो तो उसका भी नियमन सरकारी अधिकारीयों द्वारा किया jaana हिए.

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